Friday, October 21, 2022

सर्वेश्वर (The new age Krushna)

 सर्वेश्वर (The new age Krushna)

तभि उद्धव केबिन मे आते है। उद्धव आते ही मोहन को पुछ्ते है के क्या वह सच मे सत्यभामा के घर डिनर के लिये जा रहे है। मोहन इस बात पर सिर्फ हसते है। उद्धव मोहन को बोलते है के सिर्फ हसने से आज काम नही होगा। उद्धव मोहन को याद दिलाते है की आज मोहन और रुक्मिणी के कॉलेज मे हुई पेहेली मुलाकात की सालगिराह है और फिर बोलते है के यह बात सत्यभामा जानती है इसिलीये उसने मोहन को डिनर पे invite किया है। मोहन उद्धव को बोलते है के सत्यभामा सत्रजीत की बेटी है। मोहन किसीं भी हालत मे वह सत्रजित को hurt नही कर सकते। इसलीये वह सत्यभामा के घर जानेवाले है। ये बात उद्धव को अच्छी नही लगती। लेकिन वह मोहन को कूच नही केहेते। तब मोहन हसतेहुवे उद्धव को बोलते है के वह केवल सत्यभामा का इगो pamper करने उसके घर जानेवाले है। उसका मतलब ये नही होता के वह उसके घर डिनर करेंगे। उद्धव उन्हे पुछ्ते है के क्या सत्यभामा का इगो इतना महत्व रखता है? मोहन हसतेहूवे बोलते है के कभी कभी आपके केवल अच्छे बरताव से ही काम होजाता है। अगर वह सत्यभामा का इगो satisfy करेंगे तो सत्यभामा business मे गलत decissions नही लेगी। तो फिर यह डील बुरी नही है।

सत्यभामा को प्रॉमिस किया होता है तो मोहन उसके घर पोहोचते है। वहा उनकी मुलाकात सत्यभामा के पिता सत्रजीत से होती है। सत्रजीत मोहन को business कैसे चल रहा है ये पुछ्ते है। तभि सत्यभामा आती है। वह बोहोत ही खूबसुरत लग रही होती है। उसने आज मोहन को रोकने की ठान ली होती है। मोहन सत्रजीत को सत्यभामा ने की हुई डील के बारे मे बताना चाहते है। ये बात ध्यान मे आते ही सत्यभामा मोहन को रोकने की बाजाए उन्हे देर हो रही है ऐसा केहेकर जाने के लिये केंहेती है। निकलते वक्त मोहन उसे जताते है के केवल सत्यभामा जाने के लिये केहे रही है इसलीये वह जा रहे है। मोहन के मन का सच जानते हुवे भी सत्यभामा कूच नही कर सकती।

मोहन घर आते है तो देखते है के रुक्मिणी और उद्धव उनकी राह देख रहे होते है। मोहन को जल्दी आया हुवा देख उद्धव खुश हो जाते है और निकल जाते है। रुक्मिणी और मोहन मे बोहोत ही प्यारभरी बाते होती है। तभि रुक्मिणी मोहन को बोलती है के यशोदा माँ सुबह मोहन के जाने के बाद आई थी। रुक्मिणीने उन्हे रोकने की बोहोत कोशीष की लेकिन वह रुकि नही। बस् बार बार पुछ रही थी के क्या मोहनने उनके बारे मे कूच कहा। रुक्मिणी मोहन को बताती है के जब रुक्मिणी ने यशोदा माँ से देवकिजी से मिलने की बात की तो यशोदा माँ वह बात टाल गयी और जल्दी वापस जाना है ऐसा केहेकर निकल गयी। रुक्मिणी को लगता है के यशोदा माँ और देवकीजी के बीच कूच प्रॉब्लेम है। रुक्मिणीने नंद बाबा से सुना था के यशोदा और देवकी पेहेले बोहोत अच्छी दोस्त हुवा करती थी। लेकिन अब एकदुसरेसे बात नही करती। वह ये बात मोहन को बोलती है और बताती है के ऊन दोनो की चुपकी के कारण कोई भी त्योहार अच्छेसे मनाना मुश्किल हो गया है। मोहन इस बात पर हसते है।

मोहन एक बिझनेस कॉन्फरन्स मे जाते है। वहा देश-विदेश से बोहोत लोग आए होते है। मोहन जीस टेबल पर बैठे होते है वही पॅरिस से आयी कालिंदी नाम की एक business woman बैठी होती है। कॉन्फरन्स के विषय थोडे बोअरिंग होते है। तो मोहन ऊब जाते है। वह कॉफी पीने जाना चाहते है। उद्धव उनके साथ जाने के लिये इन्कार करते है; तो मोहन अकेले जाते है। बाहर कॉफी लाऊनज मे कालिंदी भी बैठी होती है। मोहन को अकेले देख वह मोहन से बात करने आती है। मोहन को जब उसका नाम काळींदी है ये समझता है तो वह surprise होते है। कालिंदी केंहेती है के उसके पिता भारत से थे; उनोन्हे उसका नाम कालिंदी रखा था। दोनो मे बाते होती है और तब कालिंदी केंहेती है के अभि अभि उसके लॉयर ने उसे फोन करके बताया के उसका डिव्होर्स पास होगया। ये सुनते ही मोहन कालिंदी को सॉरी केहेते है। तब कालिदी बोलती है के अगर हम happily married केहेते है तो जब कोई अपनी चॉईस से डिव्होर्स ले तो happliy डिव्होर्स ऐसा क्यों नही केहेते? कालिंदी की यह बात मोहन के मन को छुजाती है और वह उसे डिव्होर्स का कारण पुछ्ते है। कालिंदी केंहेती है के उसके पती मे कूच कमी थी इस कारण कालींदी प्रेग्नेंट नही हो पारी थी। लेकिन उसके पती ने सब दोष कालिंदी पर दाल दिया था। ये बात कालिंदीने accepte नही की और उसने कोर्ट मे ये साबित किया के कालिंदीमे कोई दोष नही है; और फिर डिव्होर्स के लिये applay किया था। मोहन और कालिंदीमे बोहोत बाते होने लगती है। एक पल ऐसा आता है के वह दोनो एकदुसरे के करिब आते है। जब दोनो होश मे आते है तो मोहन कूच केहेने से पेहेले ही कालिंदी खुद उन्हे केंहेती है के यह शाम वह कभी भी नही भुलेगी। लेकीन आज के बाद वह मोहन को कभी मिलेगी भी नही। मोहन उसे केहेते है के उन्हे कालिंदी का मोह कूच पलो के लिये हुवा; लेकिन उसका उन्हे दुख नही है। लेकिन ये बात भी सच है के वह अपनी पत्नी रुक्मिणी से बोहोत प्यार करते है। दोनो हसकर एकदुसरे को बाय बोलते है और निकलते है।

मोहन का बचपन का दोस्त पेंद्या अब उसी शहर मे एक private कंपनी मे जॉब करता है। वह एकदम middle class होता है। अपनी जॉब और अपनी छोटीसी फॅमिली life इसमे वह बोहोत खुश होता है। एकबार वह मोहन को देख लेता है। पेहेलीबार मोहन से बात करनेको वह झिजकता है। लेकिन मोहन उसे देखते ही गले लगा लेते है और बोलते है की वह कभी भी उन्हे मिलने आ सकता है। मोहन को उससे मिलनेमे कोई आपत्ती नही है; ये जब पेंद्या को समझता है तो वह बोहोत खुश हो जाता है; और फिर वह अपने छुट्टी के दिन या फिर मोहन के ऑफिस के पास किसीं काम के लिये आता है तो मोहन को मिलने आने लगता है। मोहन किसीं भी मीटिंग मे हो या कूच जरुरी काम कर रहे हो; जब भी पेंद्या आता है तो वह सब काम दूर करके उसके साथ थोडा वक्त बिताया करते है। पेंद्या आकर मोहन के साथ हक से चाय पिता है और फिर निकल जाता है। उद्धव को पेंद्या का इस तरह आना अच्छा नही लगता। वह मोहन को पुछ्ते है के मोहन पेंद्या जैसे एक सामान्य आदमी को इतना entertent क्यों करते है। मोहन उद्धव को बताते है के सबसे pure hearted अगर कोई है तो ये पेंद्या। एक छोटीसी कंपनी मे एक क्लार्क है वह। हो सकता है के उसके घर मे financial प्रॉब्लेम्स हो। लेकिन इस बारेमे वह कभी भी बात नही करता। वह मोहन के साथ बचपन मे की मस्ती की बाते करता है। इसलीये मोहन उसके साथ वक्त बिताकर बोहोत फ्रेश होजाते है। आज भी कोई इतना innocent होता है ये देखकर मोहन को अच्छा लगता है। इसलीये फिर पेंद्या कभी कभी irritating behaviour करता है फिर भी मोहन वह आते ही अपना सब काम बाजूमे रखकर उससे बाते करते है।

मोहन की कंपनीने गव्हर्नमेंट का एक टेंडर भरा होता है। वह टेंडर रिजेक्ट होता है। सात्त्यकी ये बात मोहन को बोलते है। मोहन रिजेक्शन का कारण पुछ्ते है तो सात्त्यकी बताते है के नयी IAS ऑफिसर आयी है। उसने competative रेट्स न होने की वजह से टेंडर रिजेक्ट किया है। मोहन टेंडर की फाईल मंगवाते है और पुरी तरह पढ लेते है। फिर वह जाम्बवती को बोलकर उस IAS ऑफिसर की apointment फिक्स करवाते है।

मित्रविंदा मोहन के कॉलेज की दोस्त होती है। दोनो एक दुसरे को बोहोत पसंद करते है। दोनो मे बोहोत गेहेरी दोस्ती होती है। मित्रविंदा धिरे धिरे मोहन से प्यार करने लगती है। और फिर एक दिन वह खुद मोहन को prapose करती है। तब मोहन उसे बताते है के वह रुक्मिणी से प्यार करते है। मोहन मित्रविंदा को केहेते है के उन्हे वह पसंद है....लेकिन केवल एक दोस्त के नाते। मित्रविंदा का दिल तूट जाता है। वह बिना किसकी को बोले कॉलेज और अपनी पढाई छोडकर चली जाती है। वही मित्रविंदा अब IAS ऑफिसर बनकर वापस आती है। मोहन जब IAS ऑफिसर को उसके ऑफिस मिलने जाते है तो मित्रविंदा को देखकर खुश होते है। लेकिन मित्रविंदा उन्हे पेहेचान नही दिखाती। मोहन confuse हो जाते है और काम की बात करना चाहते है। मित्रविंदा उनकी बात सूननेको इन्कार करती है। मोहन वहा से निकल जाते है।


क्रमशः 

Friday, October 14, 2022

सर्वेश्वर (new age Krishna)

 सर्वेश्वर (new age Krushna)


मोहन एक बिझनेस टायकून है। वह अपनी पत्नी रुक्मिणी के साथ मुंबई मे रेहेते है। मोहन और रुक्मिणी को एक बेटा और एक बेटी है। वह दोनो अमेरिका मे अपनी पढाई कर रहे है। मोहन के चचेरे भाई उद्धव बिझनेस मे मोहन का हाथ बटाते है। उद्धव का अपना परिवार है। लेकिन वह जादा समय मोहन के साथ ही बिताते है। वह रोज सुबह मोहन के घर आते है और मोहन के साथ ही ऑफिस जाते है। रात को मोहन घर को घर छोडने के बाद ही वह अपने घर जाते है। उद्धव और रुक्मिणी मे भाई बेहेन जैसा प्यार है।

रुक्मिणी ने मोहन के साथ भागकर शादी की होती है। रुक्मिणी का भाई इस बात को लेकर रुक्मिणी से बोहोत नाराज है और इतने साल होने के बावजुद अभि भी रुक्मिणी से उसके मैके के लोग कोई contact नही रखते। रुक्मिणी इस बात को लेकर मन ही मन दुखी रेहेती है लेकिन ये अपने मन का ये दुख कभी दिखाती नही है। रुक्मिणी शुरवात के दिनो मे मोहन का हाथ उसके business मे बटाती है। लेकिन फिर घर की जिम्मेदारिया बढने की वहज से वह ऑफिस आना बंद कर देती है।

मोहन जब अपने बिझनेस की शुरवात करते है तब वह एक बडे बिझनेस मॅन सत्रजित से मदत मांगते है। लेकिन वह इन्कार कर देते है। सत्रजित की बेटी सत्यभामा मोहन को कॉलेज के दिनो से जानती है और मन ही मन उन्हे चाहती है। सत्यभामा का डिव्होर्स हुवा होता है। जब सत्यभामा को पता चलता है के मोहन सत्रजीत से मदत चाहते है तब वह अपने पिता को insist करती है के वह ये प्रस्ताव मान ले और मदत के बाजाए पार्टनरशिप कर ले। इस तरह सत्यभामा मोहन की बिझनेस पार्टनर बन जाती है। सत्यभामा हर वक्त मोहन को पाने की कोशीष मे रेहेती है।

मोहन की सेक्रेटरी का नाम जाम्बवती है। जाम्बवती बोहोत ही होशियार है। वह मोहन का बॅक ऑफिस बोहोत ही अच्छेसे संभालती है। जाम्बवती दीखने मे एकदम ordinary है। उसकी शादी की उम्र निकल चुकी है। घर की जिम्मेदारियो के कारन उसने शादी नही की है।

मोहन के बडे भाई बलराम मोहन का दिल्ली का बिझनेस संभालते है। लेकिन बलराम को अपने काम से ज्यादा वर्जिष का लगाव है। इसलीये उनका बिझनेस मे ज्यादा ध्यान नही होता। इस बात का फायदा मोहन के रायव्हल हिमालय लेते है और एसी situation पैदा करते है के बलराम business world मे बदनाम हो जाएंगे और दिल्ली का बिझनेस बंद पड जाएगा। मोहन के मॅनेजर सात्त्यकी ये बात मोहन को बताते है। मोहन उद्धव को हिमालय की पर्सनल इंफॉर्मशन निकलने केहेते है। हिमालय की बेटी सत्या को बॉलिवूड मे एन्ट्री करनी है। ये बात पता चलते ही मोहन उद्धव को लेकर दिल्ली जाते है। वह सत्या को डिनर पर invite करते है और वहा उसे बोलते है के अगर वह अपने पिता से बलराम ने साईन किये हुवे documents लाकर देगी तो मोहन उसे बॉलिवूड की बडी फिल्म मे ब्रेक देंगे। सत्या मोहन की personality से impress हो जाती है और उनका काम करने का प्रॉमिस उसे करती है। उद्धव जब ये बात सुनते है तब वह मोहन को पूछ्ते है के क्या ऐसा करना सही है और क्या ये जरुरी है? मोहन बोलते है के हिमालय ने छल से बलराम भैया के sign लिये थे। अगर कोई आपसे कपट करता है तो उसे सबक सिखाना गलत बात नही है। उद्धव पुछ्ते है के क्या सत्या को बॉलिवूड का सपना दिखाना ठीक है? क्योकी अगर हिमालय चाहते तो वह खुद एक फिल्म उसके लिये बना लेते। लेकिन उनोन्हे ऐसा नही किया। इसका मतलब वह नही चाहते की सत्या बॉलिवूड मे काम करे। तब मोहन हसकर बोलते है के सत्या एक बडी लडकी है। अब वह इस मोडपर आचुकी है के उसे कोई फरक नही पडता के उसके पिता क्या सोचते है। वह बॉलिवूड मे काम करनेकेलीये घर छोडकर भी जा सकती है। हो सकता है के वह गलत हाथो मे पडजाए। उससे अच्छा तो यही है के मोहन उसकी मदत करदे। वैसे भी उसे सिर्फ एक push की जरूरत है। Eventually वह अपनेआप को prove करलेगी ये सच है।

मोहन घर आते है और फ्रेश होने के लिये अंदर जाते है। उद्धव रुक्मिणी के साथ बैठते है। रुक्मिणी उन्हे बलराम भैया की खबर पुछती है। जिस काम के लिये गये थे वह हुवा क्या ये भी पुछती है। उद्धव हसकर बोलते है के यह प्रश्न रुक्मिणीने मोहन से ही करना चाहीये। तभि मोहन बाहर आते है। रुक्मिण उद्धव को खाना खानेके लिये रोकना चाहती है। लेकिन मोहन रुक्मिणी को समझाते है के वह उद्धव को बोहोत granted लेते है। उद्धवने अपने घर परिवार को भी वक्त देना चाहीये। रुक्मिणी इसपर हसती है। उद्धव निकल जाते है।

मोहन और रुक्मिणी खाना खाने बैठते है। रुक्मिणी दिल्ली के काम के बारे मे पुछती है। मोहन उसे सबकूच बताते है। रुक्मिणी हसकर बोलती है के क्या सच मे इतना कूच करने की जरूरत है? मोहन बोलते है के वह कूच भी गलत नही कर रहे। अगर कोई केवल खुद के लिये किसीं ओर को hurt करता है तो यह बात गलत है। लेकिन जब कोई आगे की सोचकर या सभी के लिये जो अच्छा है ये सोचकर कूच निर्णय ले तो वह गलत नही होता। अब मोहन और रुक्मिणी जिंदगी के ऐसें मोडपर है के उन्हे अपने खुद से ज्यादा अपने आजूबाजू के लोगोंके लिये सूचना चाहीये। इसलीये कभी कभी मन मे न होते हुवे भी मोहन वही कर रहे है।

मोहन के पिता नंद के दोस्त वसुदेव मोहन के शहर मे ही रेहेते है। नंद और वसुदेव मे गहरी दोस्ती होती है। शादी के बाद जब मोहन रुक्मिणी के साथ शहर आने की सोचते है तो नंद उसे वसुदेव के पास जानेकीं सलाह देते है। वसुदेव और उनकी पत्नी देवकी मोहन और रुक्मिणी को बोहोत मदत करते है। मोहन के business की शुरवात मे वसुदेव ही बँक मे गॅरेटर रेहेते है। मोहन और रुक्मिणी के वसुदेव और देवकी के साथ बोहोत ही अच्छे संबंध बंध जाते है।

जब देवकी का जन्मदिन होता है तो मोहन उसे मिलने जाते है। मोहन उद्धव के साथ गाडी मे बैठकर काम की बात कर रहे होते है। मोहन का ड्राईव्हर दारुकी मोहन से कूच बात करना चाहता है लेकिन मोहन उद्धव से काम की जरुरी बात कर रहे होते है तो दारुकी उनसे बात नही कर पाता। मोहन देवकी के घर के पास पोहोचते है और अंदर जाते है। वह देवकी और वसुदेव से मिलते है। थोडी देर बैठते है। देवकी उन्हे खाना खाने के लिये रुकने केंहेती है। लेकिन मोहन बिना रुके निकल जाते है। गाडी मे बैठते ही मोहन दारुकी को बोलते है के कब से यशोदा माँ ने भेजी उनके हाथ से बनी मिठाई जो दारुकी ने अपने पास रखी है वह उन्हे दे। दारुकी ये बात सूनकर हैरान होता है। तब मोहन बोलते है के जब से वह गाडी मे बैठे है तब से गाडी मे उसी मिठाई की खुशबू आरही होती है। दारुकि मोहन को बोलता है के जब मोहन दिल्ली गये थे तब मोहन को बिना बोले दारुकी गाडी लेकर गांव गया था। तब वह यशोदा माँ से मिला था। यशोदा माँ ने मोहन के लिये मिठाई देकर दारुकी को बोला था के आज के दिन ही उसने यह मिठाई मोहन को देनी है। दारुकी की बात सूनकर मोहन हस देते है।

मोहन ऑफिस पोहोचते है। मॅनेजर सात्यकी आकर मोहन को बोलते है के मोहन की पार्टनर सत्यभामाने एक नये client के साथ डील की है। इस client की कोई भी details मार्केट मे नही है। यह एक बडा ही गलत रिस्क है। मोहन सात्यकी को पुछते है के उनोन्हे सत्यभामा को रोका क्यों नही। सात्यकी केहेते है के सत्यभामा ने किसीं की बात नही मानी। तभि सत्यभामा; जो दिखनेमे बोहोत ही सुंदर है; बिना केबिन door knock किये अंदर आती है। वह सात्यकी की अधुरी बात सून लेती है और मोहन के सामने उन्हे डाटने लगती है। मोहन सत्यभामा को रोकते है और explain करते है के सत्यभामाने जिसके साथ डील sign की है वह client फ्रॉड है। सत्यभामा इस बात पर कूच उलटा जवाब देने की सोच ही रही होती है तब मोहन उसे याद दिलाते है के सत्यभामा के पिता सत्रजीत कंपनी को लेकर कितने perticular है। अगर उन्हे ये बात पता चली के सत्यभामा के कारण बडा लॉस्ट हुवा है तो वह ये बात accept नही करेंगे। अपने पिता का नाम सुनते ही सत्यभामा चूप हो जाती है।

तभि मोहन की secretary जाम्बवती अंदर आती है। जाम्बवती दिखनेमे बोहोत ही साधारण है। सत्यभामा हर वक्त जाम्बवती का अपमान करती रेहेती है। सत्यभामा को मोहन की बात का घुस्सा आया होता है। तो वह जाम्बवती का insult करती है। फिर वह मोहन को डिनर के लिये invite करती है। मोहन invitation accept करते है। तब सत्यभामा केबिन से निकल जाती है।

सत्यभामा के जाने के बात मोहन जाम्बवती को पुछ्ते है के वह हर बार सत्यभामा के tonts क्यों सून लेती है? और बोलते है के जो खुद के लिये stand नही लेते उनकी मदत कोई नही करता। जाम्बवती हसती है और बोलती है के वह सत्यभामा को इतना importence ही नही देती के उनकी बात का बुरा लगे। फिर वह मोहन को ऊस दिन के काम की update देती है और बाहर निकल जाती है।

सात्यकी मोहन को पुछते है के सत्यभामा उनकी business partner होतेहूए भी वह अपनी secretary जाम्बवती को सत्यभामा के खिलाफ क्यो भडकाते है। मोहन हसकर बोलते है के जब तक कोई खुद केलीये stand नही लेता तबतक कोई दुसरा मदत के लिये नही आता; यह बात जाम्बवतीने समझनी चाहीये। इसलीये मोहन हरबार जाम्बवती को टोकते है। सात्यकी हसकर बोलते है के लगता है आपने इतनी बार बोलने के बावजुद जाम्बवतीने ये बात मन पर नही ली। तब मोहन हसकर बोलते है के उसने पेहेले दिन ही ये बात समझली थी और इसलीये उसने अपनेआप को इस तरह groum किया है के उसे सत्यभामा की कोई भी बात का फरक ही नही पडता।

तभि उद्धव केबिन मे आते है। उद्धव आते ही मोहन को पुछ्ते है के क्या वह सच मे सत्यभामा के घर डिनर के लिये जा रहे है।


क्रमशः

Friday, October 7, 2022

प्रेम

 प्रेम


हा शब्द आपल्याला सगळ्यांनाच आवडतो. कारण आपण प्रत्येकजण आयुष्यात प्रेम नक्की करतो. अर्थात प्रत्येकाची आपलीच अशी पद्धत असते... पण ती नक्कीच त्याच्यासाठी गोड असते.

काहीजण खूप जास्त एक्सप्रेसिव्ह असतात. I love you म्हणायला त्यांना खूप आवडतं... मग सहाजिकच आहे की तेच I love you ऐकायला देखील त्यांना खूप आवडतं.

काही कृतीतून व्यक्त करतात... तर काही आयुष्यात फक्त एकदाच!

हे एकदाच व्यक्त करणारे असतात ना त्यांचं लॉजिक मला कळतच नाही. प्रेम आहेच... आणि ते माहीत आहे.... मग परत परत का म्हणायचं? असा विचार करणारे मुळात प्रेम करत असतील का? हा प्रश्न सतत माझ्या मनात येतो.

आमच्या मागच्या पिढीत तर प्रेम व्यक्त न करणं हेच प्रेम होतं. पण मग थोडा विचार बदलला. आमच्या तरुणपणी प्रेम व्यक्त करणं आवश्यक झालं. पण अगदी प्रामाणिकपणे सांगू का? आमच्या पिढीतल्या बहुतांशिंचं मत आहे की सुरवातीला केलं न व्यक्त... आणि ते यशस्वी देखील झालंच की.... म्हणजे लग्न झालं न आपलं; झालं तर मग. आता परत परत तेच? प्रेम होतं-आहे; म्हणून तर लग्न केलं-आणि संसार करतोय आपण!

पण अलीकडे मी माझ्या पुढची पिढी बघते आहे... ते व्यक्त सतत व्यक्त होत असतात. अर्थात त्यांच्याकडे अनेक माध्यमं आहेत; त्याचा ते पुरेपूर वापर करतात. व्यक्तिक सांगू का? मला ते खूप आवडतं. मी आमच्या पिढीतल्या अनेकांना हे म्हणताना ऐकलं आहे की हा छचोरपणा अमच्यावेळी नव्हता. मला असा विचार करणारे न खूप संकुचित मनाचे वाटतात.... किंवा असं तर नसेल न; की त्यांना मनातून आवडत असेल... पण मिळत नाही म्हणून नावं ठेवायची?

आमच्या पिढीमध्ये सर्वसाधारणपणे मुलगा मुलीला विचारायचा... आणि ते ही डायरेक्ट लग्नासाठी बर का!

पण अलीकडे थोडं वेगळं असतं. एक तर मुलानेच विचारायचं असं काही नसतं. मुलीला जर एकदा मुलगा मनापासून आवडला तर ती देखील तिच्या 'प्यार का इजहार' त्याच्या समोर करते. पण हे म्हणजे फक्त 'मला तू आवडतोस/ आवडतेस'; इतकंच असतं बारं का.... किमान सुरवातीला! मग सुरू होते ती Co-ship. म्हणजे एकमेकांना समजून घेणं. यात 'जन्मजन्मांतरीच' वगैरे नसतं... एकमेकांना समजून घेत एकमेकांचा अंदाज घेणं असतं. मला वाटतं या co-ship काळात एकमेकां बरोबरच स्वतःच्या मनातल्या भावनांना देखील ही मुलं समजून घेत असतात. या काळात एक गोष्ट अगदी स्पष्ट असते बरं का! जर सिनेमा किंवा बाहेर खायला गेले दोघे तर खर्च दोघेही करतात. आमच्या वेळी मुलगाच करायचा बरं का! पण मग जर मुलाची आर्थिक परिस्थिती फारशी चांगली नसेल... जी usually नसायचीच... मुलगी समजून उमजून काही demand नाही करायची.

आता आपापला खर्च... त्यामुळे मला जिथे आवडतं तिथे मी जाणार... Do you wanna accompany me? इतकं सरळ सोपं झालंय. या co-ship मध्ये जर दोघांच्या लक्षात आलं की जमतंय आपलं तर मग ते relationship या दुसऱ्या पायरीवर येतात. मग त्यांचं social media वरचं statusr बदलतं. अहं! गैरसमज नको हं! हे status फक्त In relationship! असं होतं. अर्थात हे प्रेम आणि co-ship आणि relationship चालू असताना शिक्षण आणि आयुष्यातले पुढचे प्लॅन्स देखील असतातच सुरू. अलीकडे अजून एक गोष्ट मी observe केली आहे... प्रेम आहे आणि असतंच! पण म्हणून आपल्या करियरमध्ये कोणीही compramise करत नाही. म्हणजे जर शिक्षण संपल्यानंतर कोणाही एकाला वेगळ्या शहरात किंवा अगदी वेगळ्या देशात जॉब ऑफर आली तर ती स्वीकारली जाते. अर्थात जर co-ship च्या पुढची पायरी असेल तर पार्टनरशी बोललं जातं. पण जर ऑफर उत्तम असेल तर सहसा comprmise नाही केलं जात.

मग खरं तर पुढची पायरी असते; ती म्हणजे long distance relationship ची. कधी ती जमून जाते; तर कधी पूर्ण गंडते. गंडली तर त्याला मी दोष नाही देणार आणि जमली म्हणून 'यशस्वी नातं' असा टॅग देखील नाही मान्य मला. कारणमीमांसा करूया का?

समजा नाही जमलं long distance relationship... तर का नाही जमलं? दोन वेगळे देश असतील तर वेगळ्या वेळा असतात जगण्याच्या. मग contact कमी होतो... त्यातून गैरसमज-वाद होऊ शकतात. केवळ दोन वेगळी शहरं असली तरी देखील कामाच्या वेळा आणि जो/जी एकटे असतात; त्यांना सगळं स्वतः manage करावं लागतं; त्यातून अनेकदा येणारं irritation... ही कारणं असू शकतात. मुळात कारणं काहीही असतील अवघड असतंच न ते. समजा bond खूप strong आहे; तर या वादातून आणि गैरसमजातून समजून घेण्याकडचा मार्ग असतो.

आमच्या पिढीमध्ये लग्नानंतर आई-वडिलांसोबत राहाणं खूप स्वाभाविक होतं. पण अलीकडे तसं नाही... गंमत म्हणजे अनेक आयांना; म्हणजे माझ्या वयाच्या अनेकजणींना; मुलाने-मुलीने वेगळं राहायला हवं असतं. अगोदर आमच्या पिढीची कारणं सांगते हं! नवीन पिढीमध्ये 9 to 5 जॉब हा concept नाही. त्यामुळे मुलगा/मुलगी सकाळी एकदा कामासाठी बाहेर पडली की घरी कधी येतील याचा नेम नसतो. Work from home असेल तरी देखील ऑफिसचं काम करताना भाजी चिरण वगैरे नाही करत कोणी.... आमच्या पिढीमध्ये मी अनेक स्त्रियांना ट्रेनमध्ये भाजी निवडताना आणि चिरून ठेवताना बघितलं आहे.... असो! न करणाऱ्या पिढीचा दोष नाही आणि करणाऱ्या पिढीचं महात्म्य नाही! तर.... आयांना देखील अलीकडे स्वतःचं असं आयुष्य हवं असतं. मैत्रिणींसोबत morning walk; कधीतरी मॉलमध्ये भटकणं; बाहेर जाणं; गाण्याचे कार्यक्रम; सिनेमा!!! मग स्वयंपाकाची बांधिलकी नको असते. अर्थात गरज असेल तेव्हा या आया एका पायावर असतात बरका मदतीला.

पुढच्या पिढीला तर त्यांचं मोकळं जगणं आणि वागणं यावर बंधन नको असतं; त्यामुळे वेगळं राहाणं हवं असतं. थोडी बायस होऊन एक सांगू का? मुलग्यांना.... त्यातल्या त्यात घरातलं काम कधी न शिकलेल्या; म्हणजे थोडक्यात अति लाडावलेल्या मुळग्यांना बरं का.... वेगळं राहायचं नसतं. पण अलीकडे मुली त्यांचं मत खंबीरपणे मांडतात आणि घेतलेल्या निर्णयावर ठाम असतात. त्यामुळे वेगळं राहणारी जोडपी अनेक असतात.

मुळात करियर सेट होईपर्यंत लग्न नसतंच. पण मग live in relations अनेक दिसतात. अर्थात यावर योग्य आणि अयोग्य अशी अनेक मत-मतांतर असू शकतात. माझं व्यक्तिक मत सांगायचं तर... मला पटतं हे live in! आपलं आपल्या जोडीदारासोबत जमतं आहे का याचा अंदाज घेणं चुकीचं नाही. एकदम लग्न करून एकत्र रहायला लागल्यावर वर्ष-दोन वर्षांनी जर जाणवलं की आपला निर्णय चुकला तर घटस्फोट घेणं अवघड जातं; आणि मुळात live in relationship कडे बघण्याचा आपला दृष्टिकोन आपण थोडा बदलायला हवा. राहून बघूया जमतंय का! असा विचार ही पिढी करते; असं आपण म्हणतो... पण जमवून घेण्यासाठी राहूया... असा विचार कशावरून करत नसतील ते?

आपण आपल्या मुलांवर लहानपणापासून संस्कार केले आहेत न? त्यावर तर विश्वास ठेवला पाहिजे न आपण? बरं! भांडणं कोणामध्ये होत नाहीत? एकदा कोणतंही couple एकाच बेडरूमचं छत बघायला लागलं न की वाद होतातच. कारण मग प्रेम असलं तरी रोमान्स कमी होतो... उद्या भाजी काय करायची? बिलं भरली आहेत की नाही? EMI cut होईल; account मध्ये balance आहे न.... हे विचार मनात यायला लागले न की romance कमी झालाच समजा!!!

आणि इथेच येतो माझा पहिला मुद्दा!!! प्रेम!!! प्रेम असतंच!! फक्त ते व्यक्त होत नाही. Friends.... एकवेळ romance कमी झाला तरी चालेल... प्रेम असतंच; व्यक्त झालं पाहिजे! मग ती कोणतीही पिढी असो! यार.... I love you हे जादूचे शब्द कोणत्याही वयात चेहेऱ्यावर हसूच आणतात.

काय पटतंय का?

Friday, September 30, 2022

प्रेम गीत

 प्रेम गीत


एका नवथर प्रेयसीच्या मनातले प्रेम भाव तिने व्यक्त केले आहेत.... हिंदीमध्ये! त्यात अजून एक हलकंसं वळण म्हणजे ती बंगाली आहे आणि तिचा प्रियकर मात्र उत्तर प्रदेशात राहणारा आहे. त्यामुळे नकळत जरी ती तिच्या भाषेत गुणगुणत असली तरी त्याला कळावं म्हणून तिने तिचे प्रेम भाव मात्र त्याच्या बोली भाषेत व्यक्त केले आहेत. कंसामध्ये लिहिलेले शब्द जरी देवनागरी मधले असले तरी ते बंगाली आहेत.... आणि पहिल्या दोन ओळी; म्हणजे अंतराच; बंगाली भाषेत लिहिला आहे.

एक थोडा वेगळा प्रयत्न केला आहे. आवडला का नक्की सांगा!

मैं ना जानु.. हाय.. नाही जानु.. मेरी जान..
प्रित कैसे छुपानी...
(आमी जानी ना.. हाय.. ना जानि.. अमार जान..
किभाबे भालोभाशा लुकाते...)

कैसे कैसे प्रीत लगी तोरे संग पियरवा...
एक दिन बात कहे हम मन का...
झुके नैनं... पलके हसी झुटीनवा...
कलाई मोरी तरसे... धडके जियरवा...

मै ना जानु.. हाय.. नाही जानु.. मेरी जान..
प्रित कैसे छुपानी...
(आमी जानी ना.. हाय.. ना जानि.. अमार जान..
किभाबे भालोभाशा लुकाते...)

भये हम बावरी.. हसे जब कोई... ली
देख ना ले मोहें... सखींया मोरी...
छुप छुपाए हम दिल को समेटी..
राह देखे तुमरी... सांज-सवेरी...

मै ना जानु.. हाय.. नाही जानु.. मेरी जान..
प्रित कैसे छुपानी...
(आमी जानी ना.. हाय.. ना जानि.. अमार जान..
किभाबे भालोभाशा लुकाते...)


तुम बिन कैसे रैन बिताऊ...
जले मोरा जियरा... कैसे बुझाऊं..
कहुं क्या अब हम.. हमरी सखी संग...
छुपे ना बात जब वो रहे नित संग...

मै ना जानु.. हाय.. नाही जानु.. मेरी जान..
प्रित कैसे छुपानी...
(आमी जानी ना.. हाय.. ना जानि.. अमार जान..
किभाबे भालोभाशा लुकाते...)

Friday, September 23, 2022

फिल्म लेखन आणि निर्मितीच्या निमित्ताने

फिल्म शूट या विषयावर मी कधी लिहीन असं मला वाटलंच नव्हतं. खरं सांगायचं तर राजकीय क्षेत्रात देखील काम करेन असा विचार देखील मी कधीच केला नव्हता... हे देखील तितकंच खरं! मात्र गेली दहा वर्ष मी काम केलं आहे. पण प्रामाणिकपणे सांगायचं तर ते माझं क्षेत्र नाही. म्हणूनच माझ्यासारखा स्वभाव असणारी व्यक्ती पराग सारखा खांबीर आधार असेल तरच काम करू शकेल या क्षेत्रात; हे लक्षात आलं आणि मग पक्का निर्णय घेतला की या क्षेत्रातून बाहेर पडायचं. पण मग पुढे काय करायचं ते मात्र ठरवलं नव्हतं. त्याचवेळी कधीतरी एकदा श्री. राहुल अगस्ती (फॅशन डिझायनर) यांनी मला माझ्या एका कथेसाठी विचारलं... आणि मग एक वेगळाच प्रवास सुरु झाला. त्या प्रवासाचं फलित म्हणजे मी आता माझी फिल्म निर्मिती कंपनी सुरू केली आहे.

सध्या 'Right Brain' या माझ्या निर्मिती कंपनी अंतर्गत दुसऱ्या फिल्मचं शूट सुरू आहे. माझी पहिली निर्मिती भय/ रहस्य कथेवर आधारित होती. त्यावेळचे काही फोटो....







आता मात्र एका पस्तिशीमधल्या पती-पत्नीच्या भावनिक गुंतावूनकीची प्रेम कहाणी; असा विषय आहे माझ्या दुसऱ्या फिल्मचा. या येणाऱ्या फिल्मच्या शूटचे काही फोटो .....






पण तसं बघितलं तर माझ्या कथेवर निर्मित होणारी ही चौथी फिल्म आहे. 'लालीची गोष्ट' या माझ्या कथेतील केवळ काही भागावर पहिली फिल्म शूट झाली होती 2018 मध्ये. त्यानंतर भर कोव्हिड काळात दहा मिनिटांची दुसरी शॉर्ट फिल्म 'स्टुडिओ अपार्टमेंट' केली. अर्थात हे दोन्ही सिनेमे म्हणजे केवळ एक प्रयोग होता. त्यावेळी मी कधीच असा विचार नव्हता केला की मी स्वतः फिल्म निर्मिती क्षेत्रात काही करेन.

माझी पहिली व्यावसायिक फिल्म 'एपिलॉग' ही जुलै 2022 ला फिल्लम् बाज फिल्म कंपनी या YouTube चॅनेलवर रिलीज केली. आजवर जवळ जवळ एक लाखांच्यावर views आहेत या फिल्मला. एक भय/ रहस्य कथा असूनही इतके जास्त views असणं मला खूप आनंद देऊन गेलं. अर्थात एक फिल्म लिहून, शूट करून रिलीज करणं हा एक वेगळाच अनुभव आहे.

कथा लिहिताना आपण केवळ वाचकांच्या मनाचा विचार करतो. पण प्रेक्षकांची मानसिकता वेगळी असते. मूलतः सिनेमा हे दृक्श्राव्य माध्यम. वाचक एखादा संवाद वाचताना त्या संवादातील व्यक्तिमत्व भाव कसे व्यक्त करत असतील याची त्यांच्या मनात कल्पना करतात. मात्र सिनेमामध्ये ते प्रेक्षकांना दिसतं. त्यामुळे त्यांना स्वतःचा विचार करण्याचं स्वातंत्र्य नसतं. आजवर हे मला सोपं वाटत होतं. पण आता मी स्वतःच सिनेमाच्या दृष्टीने कथा लिहायला लागले आहे त्यावेळी लक्षात येतं आहे की आपल्या मनातले भाव तंतोतंत जर प्रेक्षकांपर्यंत पोहोचवायचे असतील तर लेखक म्हणून खूप जास्त विचार करायला हवा.

कथा लेखक आणि वाचक हा थेट संवाद असतो; याउलट सिनेमासाठी लिहिणं हा अनेक माध्यमातून प्रेक्षकांपर्यंत पोहोचवायचा विचार असतो. लेखक आणि दिग्दर्शक यांचा सुसंवाद ही यशस्वी सिनेमाची पहिली पायरी. दुसरी पायरी म्हणजे दिग्दर्शक आणि अभिनेते यांचा सुसंवाद. अर्थात यामध्ये जोपर्यंत दिग्दर्शकला मान्य होत नाही तोपर्यंत अभिनेत्यांना तोच तो अभिनय आणि संवाद परत परत करावा लागतो. म्हणूनच कदाचित या क्षेत्रात दिग्दर्शकचं महत्व अनन्यसाधारण आहे. अर्थात अभिनेते हे खरे संवाद साधक आहेतच; त्यामुळे ते तिसरी पायरी आहे. लेखक आणि दिग्दर्शकाला जे सांगायचं असतं ते अभिनेते त्यांच्या संवादातून सांगतात.... आणिअनेकदा संवाद नसताना त्यांनी त्यांच्या चेहेऱ्याने बोलणे अत्यावश्यक ठरते. शेवटची पायरी म्हणजे एडिटिंग. अभिनेत्यांनी जे कॅमेरा समोर दाखवलं असतं; ते योग्य पद्धतीने कट करणं देखील तितकंच आवश्यक असतं. सगळी मिळून आलेली भेळ मग तिखट, आंबट, गोड असते... ती मायबाप प्रेक्षकांच्या सोमर ठेवली जाते.

कितीतरी मोठं टीम वर्क आहे हे. एका कुटुंबासारखं काम करणारं. काही हट्टी, काही फक्त सांगकामे आणि काही इच्छा असूनही केवळ गरजेपोटी पडेल ते काम करणारे... सगळे एकत्र येतात एका सुंदर कलाकृतीसाठी. 


Friday, September 16, 2022

गच्ची (गूढ कथा)

 गच्ची


"साब आप रोज टेरेसपे क्यो जाते है?" गंगारामने जिना चढणाऱ्या पुनीतला प्रश्न केला. त्याच्याकडे बघत डोळा मारून पुनीत म्हणाला; "वर्जिश करने को गंगा. और क्यो जाऊंगा?" त्याचं उत्तर ऐकून हसत हसत गंगाराम जिना उतरून गेला. एकदा तो गेला त्या दिशेने बघून पुनीतने गच्चीचा दरवाजा उघडला.

आत पाऊल टाकल्या टाकल्या त्याने प्रीतकडे बघितलं; तिने देखील त्याच्याकडे बघितलं. दोघेही एकमेकांकडे बघून ओळखीचं हसले. शोर्ट्स, क्रॉप टॉप घातलेली प्रीत आज तर बेफाम सुंदर दिसत होती. तिने तिचे उडणारे केस गोल फिरवून क्लीपने वर बांधले होते. हातात सिगरेट आणि समोर बिअरचा ग्लास ठेऊन तिने लापटॉपमध्ये डोकं खुपसलं होतं. पुनीतने हातातले डंबेल्स एकदा तोलले आणि व्यायामाला सुरवात केली.

पुनीतला त्या multi-stored इमारतीमध्ये रहायला येऊन जेमतेम पंधरा दिवस झाले होते. तो त्याच्या मित्राच्या फ्लॅटमध्ये राहात होता. पुनीतची इथे बदली झाली तेव्हा कुठे राहायचं हा मोठा प्रश्न होता त्याला. त्याने त्याच्या मित्राला फोन केला होता कुठेतरी भाड्याने घर मिळेल का विचारायला. तर मित्र म्हणाला त्याचा स्वतःचा फ्लॅट रिकामा होता. त्याला तो विकायचाच होता... जोपर्यंत विकला जात नाही तोपर्यंत पुनीतने रहायला हरकत नाही असं तो म्हणाला. एकदा तिथे पोहोचलं की घर शोधता येईल असा विचार करून पुनीतने फारसे आढेवेढे न घेता मित्राच्या फ्लॅटमध्ये राहायचं मान्य केलं.

फ्लॅट फर्निश होता आणि पुनीत एकटाच होता... त्यामुळे तसा काहीच प्रश्न नव्हता. ज्या दिवशी तो राहायला आला त्याच दिवशी त्याने प्रीतला बघितलं होतं. त्याच्याच मजल्यावर बाजूच्या फ्लॅटमध्ये ती राहात होती. तिच्याकडे बघूनच लक्षात येत होतं की एकदम बिनधास्त मुलगी असावी ती. पाहिले काही दिवस तर ती पुनीतकडे बघायची देखील नाही. पण मग एकदा ऑफिसमधून परत येऊन पुनीत त्याच्या फ्लॅटचं दार उघडत होता त्यावेळी त्याला प्रीत गच्चीच्या दिशेने जाताना दिसली. अंदाज घेण्यासाठी तो पटकन फ्रेश होऊन गच्चीत गेला.

प्रीत गच्चीत एका बाजूला बसली होती. समोर एक पेग भरलेला होता. शोर्ट्स आणि टी शर्ट घातलेली हातात सिगरेट असलेली प्रीत संध्याकाळच्या उतरत्या उन्हात अप्रतिम सुंदर दिसत होती. डोळ्याच्या एका कोपऱ्यातून तिच्याकडे बघत पुनीत उगाच इकडे तिकडे फिरत राहिला. प्रीतने एक-दोनदा मान वर करून त्याच्याकडे बघितलं. पण कोणताही रिस्पॉन्स दिला नाही. थोड्यावेळ timepass करून पुनीत खाली उतरला. थोड्या वेळाने जिन्यात पायांचा आवाज आला म्हणून पुनीतने फ्लॅटचा दरवाजा उघडला तर गंगाराम वॉचमन गच्चीचा जिना उतरून खाली येत होता.

"अरे गंगाराम तू क्या कर रहा था उपर?" पुनीतने गंगारामला विचारलं.

"हम क्या करेंगे साब? पानी का टाकी भर गया था. वो ऑटोमॅटिक पंप बंद पड गया है ना तो पंप बंद करने को उपर गया था. वैसे मुझे भी उपर जाने को अच्छा नही लागता. लेकीन क्या करने का? अपना तो नौकरी ही ऐसा है ना!" गंगाराम म्हणाला.

"क्यो रे. क्यो अच्छा नही लगता?" पुनीतने गंगारामला विचारलं. त्याला प्रीत बद्दल माहिती घ्यायची होती. पण डायरेक्ट कसं विचारायचं असा विचार करून त्याने आड मार्गाने प्रश्न करायला सुरवात केली.

"अरे साब. अब क्या बोलू? वो आपके बाजूवाले फ्लॅट की मॅडम के कारण ही तो ना..... पेहेले तो शाम को बच्चे भी खेलने को जाते थे. अब किसिकी मम्मी लोग नही भेजती उप्पर. दादा लोग तो सिर्फ मॅडम को देखने को जाते थे. लेकीन फिर एक बार प्रीत मॅडम के husband ने इतना तमाशा किया के सब लोग उपर जाना छोड दिये." गंगाराम खिशातून सिगरेट काढून शिलकवत म्हणाला.

"क्या बात कर रहे हो यार? शादी होगयी है क्या उसकी?" प्रीतच्या नवऱ्याचा उल्लेख ऐकून एकदम सरळ उभं राहात पुनीत म्हणाला.

"अभि क्या बताउं साब? रोज पिके आता था. फिर वो ही गालिगलोच, झगडा. फिर मॅडम उपर जाके बैठ जाती थी. सिगरेट मेरेसे ही मंगवाती थी ना. अच्छी खासी उपर की कमाई होती थी. उनके कारण ही तो ये ब्रँड की सिगरेट की आदत पड गयी. " गंगाराम म्हणाला.

"तो अब?" पुनीतने अंदाज घ्यायला विचारलं.

"अब क्या साब? अब फोन नही आता... और ये आदत नही जाती." अर्धी सिगरेट बुझवून खिशात ठेवत गंगाराम लिफ्टच्या दिशेने वळला.

अजून काही प्रश्न विचारला तर आगाऊपणा वाटेल म्हणून पुनीतने फ्लॅटचं दार लावून घेतलं.

त्याच दिवशी रात्री पुनीतला झोपेतून जाग आली. शेजारच्या घरातून जोरजोरात भांडल्याचा आवाज येत होता. पुनीतने काय बोलणं चाललं आहे ते समजून घ्यायचा खूप प्रयत्न केला. पण प्रीत आणि तिचा नवरा नक्की काय बोलत होते ते त्याला कळलं नाही. थोड्या वेळाने त्यांच्या फ्लॅटचा दरवाजा जोरात आपटल्याचा आवाज आला त्याला. पुनीत घाईघाईने त्याच्या फ्लॅटच्या मुख्य दरवाजा जवळ गेला. त्याला गच्चीच्या दिशेने पावलं वाजलेली कळली. तो दार उघडणार होता इतक्यात परत बाजूच्या फ्लॅटचा दरवाजा वाजला आणि पुनीत थबकला. 'आत्ता उगाच रिस्क नको' असा विचार करून तो मागे वळला आणि जाऊन झोपून गेला.

***

दुसऱ्या दिवशी पुनीत गच्चीत गेला तर त्याच त्या ठराविक कोपऱ्यात प्रीत बसली होती. तेच शॉर्टस आणि टी शर्ट, बिअर ग्लास, सिगरेट आणि लॅपटॉप. पुनीतच्या लक्षात आलं की ही रोज संध्याकाळी वर येऊन बसते. बहुतेक ही येते त्यावेळी कटकट नको म्हणून इतर कोणीच येत नाही. मग मात्र पुनीतने देखील स्वतःसाठी रुटीन ठरवून टाकलं. ऑफिसमधून आल्यावर तो रोज गच्चीमध्ये व्यायाम करायला जायला लागला. काही दिवसांनी प्रीत आणि पुनीतला एकमेकांच्या गच्चीत असण्याची सवय झाली. दोघेही अधून मधून एकमेकांमडे बघून हसायला लागले.

असेच काही दिवस गेले. अधून मधून शेजारच्या घरातून भांडणाचे आवाज यायचे पुनीतला. पण रात्रीच्या वेळी रिस्क नको म्हणून तो गप राहायचा. मात्र एक दिवस पुनीत हिम्मत करून प्रीत जवळ गेला.

"Hi. Am punit. I stay just the next door." प्रीतच्या दिशेने शेकहॅन्ड करण्यासाठी हात पुढे करत तो म्हणाला.

"I know..." प्रीत हसत म्हणाली.

"What do u know?" गोंधळून पुनीतने विचारलं.

"That u stay next door...!?" अजून काय अशा आवाजात प्रीतने उत्तर दिलं.

"Oh! My bad. I thought you know me even otherwise." ओशाळवाण हसत पुनीत म्हणाला.

असेच काही क्षण गेले. आता पुढे काय?

"Guess you are very health conscious. आपको रोज excercise करते देखती हूं. ऑफिस के बाद भी इतनी energy रेहेती है ये बडी बात है. That's amazing." प्रीत स्वतःच बोलायला लागली. त्यामुळे पुनीतला हायसं वाटलं.

"Yup. I have always been conscious about my work outs. कूच भी हो... exercise तो मै करता ही हूं. That's why have a very strong ......." शेवटचा शब्द मुद्दाम अर्धा सोडला त्याने. लपटॉपमधून मान वर करत प्रीतने त्याच्याकडे बघितलं.

"Strong body....." तो घाबरून पटकन म्हणाला.

"Oh yaah.... I can see that. What else is....." प्रीत देखील तेवढीच स्मार्ट होती. तिने देखील वाक्य अर्ध तोडलं.

"Else....!?" पुनीतचा गोंधळ उडालेला त्याच्या चेहेऱ्यावर पूर्ण दिसत होता. तो बघून प्रीतला हसायला आलं. हसत हसत तिने म्हंटलं; "I was generally asking you... as what else is happining around?"

"Oh... I thought...." पुनीत मोठा निश्वास टाकत म्हणाला.

"You thought?!" तिचा स्वर अजूनही मिश्किल होता.

"Oh! Nothing... nothing..." पुनीत सारवासारव करत म्हणाला.

"If anything more than your body is strong.... I would ......" प्रीत पुनीतची कळ काढायची थांबत नव्हती.

"What... हं???" पुनीत अस्वस्थ होत म्हणाला आणि प्रीत खळखळून हसली.

हसताना प्रीत अप्रतिम सुंदर दिसत होती. तिच्या चेहेऱ्यावर मावळत्या सूर्याची किरणं रंगाळत होती. त्यामुळे तिचे पिंगट डोळे अजूनच मधाळ दिसत होते. पुनीतला स्वतःला कळायच्या अगोदर त्याने प्रीतला एकदम जवळ घेतलं होतं. दोघेही एकमेकांच्या मिठीत विसावले. असेच काही क्षण गेले आणि पुनीत भानावर आला. त्याची मिठी सैलावली आणि प्रीतने डोळे उघडले.

"Oh... Guess I should get going." पुनीतकडे न बघता प्रीतने तिचं लॅपटॉप उचललं आणि ती निघाली.

ती जेमतेम गच्चीच्या दाराकडे पोहोचली असेल आणि पुनीत म्हणाला; "It's fullmoon today. Having chilled beer in cool breezy terrace is real fun. I love to have one today."

प्रीतने थबकून मागे वळून बघितलं आणि खूप गोड मधाळ हसली ती.

पुनीतला बिअरचा घोट घेताना खात्री होती की प्रीत नक्की येणार गच्चीवर. त्याचा ग्लास अर्धा संपला आणि गच्चीचं दार वाजलं. पांढरा शुभ्र नेटचा गाऊन घालून प्रीत दारात उभी होती. तिला बघून पुनीत हरवून गेला. प्रीतला मिठीत घेण्यासाठी तो एकदम पुढे आला आणि त्याचा हात लांब करत हसत प्रीत म्हणाली; "I thought u had invited me to have beer." आणि पुनीत एकदम ओशाळला.

"Oh! Of course! See this! It's real child. Had kept in fridger for a while to get real chilled." प्रीतसाठी ग्लास भरत तो म्हणाला.

"So? Still work from home?" चिअर्स करताना पुनीतने प्रीतला प्रश्न केला.

"Yah... If u say so." दूर नजर लावत प्रीत म्हणाली आणि तिने एक मोठ्ठा घोट घेतला. "Forget about me. Tell me about you." ती एकदम मोकळेपणी हसत म्हणाली.

"What about me? Got transfered here. Where to stay was a big question. This is my friend's flat; he wants to sell. Till then he allowed me to stay here. So here I am." पुनीत म्हणाला.

बहुतेक प्रीतचं पुनीतच्या बोलण्याकडे लक्षच नव्हतं. "I just love this full moon night. कितना सुकून होता है ना." तिच्या अप्रतिम सौंदर्याकडे बघत पुनीतने केवळ एक हुंकार दिला.

"एक बात पुछु प्रीत?" पुनीतने काहीसं खाकरून तिच्याकडे बघत प्रश्न केला.

"पुछो ना. इतना फॉर्मल क्यो बनते हो." हसत प्रीत म्हणाली.

"प्रीत... मै तुम्हारा और तुम्हारे पती का झगडा रोज सूनता हूं. अगर तुम चाहो तो मुझे बता सकती हो क्या बात है. मै तुम चाहो तो मै तुम्हे मदत कर सकता हूं." पुनीत म्हणाला.

"अब कूच नही हो सकता पुनीत." एक मोठा निश्वास टाकत प्रीत म्हणाली.

"क्यो? क्यो कूच नही हो सकता? प्रीत तुम्हारे जैसे indipendent लाडकी ने एसी बाते नही करनी चाहीये. क्या वो मारता भी है?" पुनीतने तिला हळुवार आवाजात विचारलं.

प्रीतने मानेनेच हो म्हंटलं आणि मान खाली घातली.

"तो फिर क्यो रहती हो उसके साथ?" पुनीतने तिचा हात हातात घेत तिला स्वतःकडे वळवत विचारलं.

प्रीत काही एक न बोलता मान खाली घालून उभी होती. पुनीतने हलकेच तिच्या हनुवटीला धरून तिचा चेहेरा वर केला. चांदण्यामध्ये नहाणारं अप्रतिम शिल्प होतं त्याच्या समोर. न राहावून प्रीतचं चुंबन घेण्यासाठी पुनीत पुढे झाला आणि प्रीतने लाजून परत मान खाली घातली. पुनीत मंदसं हसला आणि प्रीत देखील. पुनीतने तिला हलकेच जवळ घेतलं आणि दोघेही बरसणाऱ्या चांदण्यामध्ये नाहात उभे राहिले. असा किती वेळ गेला कोण जाणे... दोघे एकमेकांपासून लांब झाले आणि प्रीत हलकेच उडी मारून गच्चीच्या कठड्यावर बसली.

"Oh. Hey get down please. It's risky." तिचा हात धरून तिला खाली उतरायचा आग्रह करत पुनीत म्हणाला.

खळखळून हसत प्रीतने विचारलं; "क्यो डरते हो क्या?"

तिला खाली उतरवायचा प्रयत्न चालू ठेवत पुनीत म्हणाला; "डरने की बात नही है प्रीत. हम दोनोने बिअर पी रखी है. थोडा इधर उधर हो गया तो....."

खसकन त्याचा टी शर्ट धरून त्याला स्वतःकडे ओढत प्रीत म्हणाली; "थोडा इधर उधर हो गया तो पुनीत?"

तिच्या मधाळ डोळ्यात हरवून जात पुनीत म्हणाला; "तो..... nothing...."

प्रीतच्या डोळ्यात हरवलेला पुनीत त्याच्याही नकळत गच्चीच्या कठड्यावर बसला होता. प्रीत त्याच्या मिठीत होती. स्वर्ग याहून काही वेगळा असूच शकत नाही असं त्याला वाटत होतं.

"प्रीत.... I just can't believe that you are in my arms." तिला अजून घट्ट जवळ घेत पुनीत म्हणाला. प्रीतीचा चेहेरा देखील समाधानाने फुलला होता.

"पुनीत.... मै एक बात पुछु?" मिटल्या डोळ्यांनी समाधानी चेहऱ्याच्या प्रीतने पुनीतच्या मिठीत असताना त्याला प्रश्न केला.

"Now you are being formal my love." पुनीत म्हणाला.

त्याच्या मिठीतुन दूर होत त्याच्या डोळ्यात डोळे घालून प्रीतने त्याला विचारलं; "पुनीत.... शादी करोगे मुझसे?"

............... आणि त्या प्रश्नाने पुनीत पूर्ण घाबरून गेला.

"शादी?" त्याच्या तोंडून कसे बसे शब्द बाहेर पडले.

"हा! शादी!" प्रीत म्हणाली.

"प्रीत.... शादी?" पुनीतला काय बोलावं सुचत नव्हतं.

"क्यो पुनीत? तुम्हे मै पसंद हूं न?" प्रीतचा आवाज थोडा तीव्र झाला होता.

"हा.... पसंद हो प्रीत.... लेकीन शादी?" पुनीत तेच तेच परत परत बोलत होता.

"Exactly.... पुनीत.... शादी का नाम सूनते ही होश मे आए तुम. You too are same like all other men I have seen. तुम लोग लडकी का सिर्फ शरीर जानते हो. And exactly that's what I hate the most." बोलताना प्रीतचा आवाज मोठा व्हायला लागला होता... इतका मोठा की चरकायला लागला.

बिअरची नशा.... भणाणलेला वारा.... आणि प्रीतचं टिपेच्या आवाजातलं बोलणं... पुनीतला काय होतंय कळेनासं झालं....

"बोलो शादी करोगे.... पुनीत बोलो.... बोलो ना.... शादी करोगे...." प्रीत तेच तेच परत बोलत होती.

"No... that's not possible Preet. Am already married." पुनीतच्या तोंडून शब्द बाहेर पडले आणि त्याच क्षणी प्रीतने त्याला गच्चीवरून ढकलून दिलं......

.......................... पुनीत मोठ्याने ओरडत उठला होता. त्याच्या समोर गंगाराम अर्धी जळालेली सिगरेट पेटवत उभा होता.

"उठो साब. अब समझें इधर कोई क्यो नही आता? जाओ साब.... जाओ अपने रास्ते."

असं म्हणून पुनीतच्या दिशेने एक कुत्सित हास्य फेकून गंगाराम गच्चीचं दार उघडून खाली उतरला.

समाप्त

Friday, September 9, 2022

वासंतीचं स्वप्न (भाग 3)

 वासंतीचं स्वप्न

भाग 3


भाग 2

तो गेला त्या दिशेने बघत आत्या म्हणाली; "पहा बरं वहिनी.... दोन दिवस नाही झाले मोठा भाऊ जाऊन तर वहिनी वरून वासंती झाली ती या नंदनसाठी. मला काय? मी आपलं तुमचं काम सोपं व्हावं म्हणून बोलत होते. ठेऊन घ्यायची असेल ही आग घरात तर ठेवा. मी कोण काही बोलणारी? आण्णा सारखी तेराव्याला येऊन जाईन झालं." असं म्हणून आत्या देखील आत निघून गेली.

वासंतीच्या खोलीत तिची आई गेली. बघते तर वासंती भरतकाम करत बसली होती. "हे काय करते आहेस वासंती? बाहेर तुझ्यावरून वादळ पेटलं आहे आणि तू इथे शांतपणे भरत काम करत बसली आहेस?" बोलताना आईच्या डोळ्यात पाणी उभं राहिलं.

आईकडे शांतपणे बघत वासंती म्हणाली; "मग काय करू मी आई? माझ्याबद्दल बोलताना मला किमान ऐकण्यासाठी तरी बाहेर बोलवावं असंही कोणाला वाटलं नाही. मग किमान मी माझं मन रमेल असं काहीतरी करते न."

तिच्या जवळ जात आई म्हणाली; "कसं होणार ग तुझं पुढे वासंती? पूर्ण आयुष्य पडलं आहे तुझं तुझ्या समोर. पोरी... काय फुटकं नशीब घेऊन जन्माला आलीस ग?"

वासंतीने हातातलं काम बाजूला ठेवलं आणि आईकडे शांत नजरेने बघितलं आणि म्हणाली; "आई, माणसांच्या चुकीच्या निर्णयाचं खापर आपण नशिबावर फोडणं कधी बंद करणार ग?"

"म्हणजे?" नकळून आईने विचारलं.

"आई, एकोणीस वर्ष हे लग्नाचं वय नाही. या आजच्या काळात तर नक्कीच नाही. त्यात शिकायची इच्छा असताना शिकू न देणं चूकच. तुमच्याकडे पैसे नव्हते हे मान्य... पण म्हणून दुसरे मार्गच नव्हते असं नाही. ग्रंथाळ्यातल्या काकांनी बाबांना सांगितलं होतं की मुलींनी शिकावं म्हणून अलीकडे सरकार कितीतरी योजना आणत आहे; पण दुर्दैवाने बाबांची मानसिकता नव्हती. दादा म्हणाला आणि लग्न ठरवून टाकलं त्यांनी. हा... लग्नानंतर नवरा गेला हे मात्र नशीब. पण मग इतक्या लहान वयाच्या मुलीला आता पुढे काय करायचं आहे हे तिला न विचारता तिच्या आयुष्याचा निर्णय असे लोक घेणार जे फक्त लग्नाला जेवायला आले होते? आणि म्हणणार काय... तर मुलीचं नशीब फुटकं." शांतपणे परत भरतकाम करत वासंती म्हणाली. तिचं बोलणं आईला पटत देखील होतं आणि सामाजिक बंधनाची जाणीव देखील मनाला टोचत होती.

तिसऱ्या दिवशी काका, आत्या आणि त्यांच्या घरातले सगळे निघाले. निघताना तेराव्याला येतो. काही मदत लागली तर कळवा. असं औपचारिक बोलणं झालं. ते सगळे गेले आणि वासंतीचा भाऊ आईसमोर येऊन उभा राहिला.

"मला निघायला हवं. तिकडे कामं पडली आहेत सगळी. तू थांब हवं तर तेराव्या पर्यंत. पण मग मात्र माघारी ये. घरची कामं सुलेखाला एकटीला आवरत नाहीत. मदत नसेल तर ती आजारी पडेल." आईकडे बघत तो म्हणाला.

काय बोलावं आईला सुचेना. वासंतीच पुढे झाली आणि म्हणाली; "दादा, माझं राहूदे... पण आईचा थोडा तरी विचार कर. तिच्या तरण्या ताठ्या मुलीचा नवरा वर्ष पूर्ण व्हायच्या आत गेला आहे. मुलीचं कसं होणार या चिंतेत ती आहे. तुला मात्र फक्त तुझे प्रश्न दिसतात का रे?" वासंतीचं बोलणं तिच्या भावाला चांगलंच झोंबलं.

"ए अवदसे गपते का? काळ्या तोंडाची अपशकुनी आहेस तू. आमचं सगळं छान चाललं होतं आणि अचानक जन्म घेतलास. इतकी लहान नणंद म्हणून मला मुली सांगून येईनात. त्यात बाबा रिटायर्ड झाले; तरी तुला शिकवत राहिले. कुठून आणणार होते ते पैसे? मग माझ्या वाटणीचे पैसे तुझ्यावर उडवायला लागले. शेवटी मीच ती उधळपट्टी बंद करून तुझं लग्न लावून दिलं म्हणून बरं. गेलेच न ते अगोदरच. सगळी जवाबदारी माझ्यावर सोडून? आणि आईचं काय सांगतेस मला? मी काही तिच्यावर सगळं काम लादत नाही. तिनेच अति हौसेने ती झाडं लावून ठेवली आहेत; त्याची उस्तवारी फक्त तिने करावी. इतकीच माफक इच्छा आहे माझी. च्यायला, पण तुला का सांगतो आहे हे सगळं मी? हे बघ वासंती... तुझं लग्न करून दिलं आणि तुझा आमचा संबंध संपला. आता तू आणि तुझं सासर काय ते बघून घ्या. आई परत येताना तुला घेऊन आली न... तर दोघींना घरातून हाकलून देईन. समाजलात?" एकदम उसळून वासंतीचा भाऊ बोलला आणि तसाच निघून गेला.

वासंतीने अपेक्षेने आईकडे बघितलं. पण आईची खाली गेलेली मान वर येत नव्हती. वासंतीने सुस्कारा सोडला आणि ती खोलीतून बाहेर पडली.

दुसऱ्या दिवशी वासंती तयार होऊन बाहेर पडली. तिची आई कुठल्यातरी कामात घरात होती. त्यामुळे आईला काही कळलं नाही वासंती बाहेर निघाली आहे. सासू मात्र समोरच सोफ्यावर बसली होती. तिने वासंतीला समोर बघताच विचारलं; "कुठे निघाली तुमची स्वारी?" सासूच्या नेहेमीच्या आवाजापेक्षा वेगळा आवाज होता तो. वासंतीला सगळं कळत होतं. पण आता यासगळ्याची सवय व्हायला हवी; असा विचार करून तिने शांतपणे उत्तर दिलं; "जरा मार्केटला जाऊन येते." "असं काय आणायचं आहे मार्केट मधून?" सासूने काहीसं संशयाने विचारलं. "माझा साबण संपला आहे." वासंती म्हणाली. "अग, मग त्यासाठी तू कशाला जाते आहेस? नंदन आणून देईल..." सासू म्हणाली. "पण मला अजूनही अशाच काही वस्तू हव्या आहेत सासूबाई. तो पुरुष आहे. त्याला नाही कळणार. मलाच जावं लागेल." वासंती म्हणाली. "अग, असं असेल तर तुझी आई जाईल की. मग तर तुला तुझ्याजवळचे पैसे पण खर्चायला नकोत. तीच देईल पैसे. आता तुला देखील जपून पैसे खर्च करावे लागणार आहे न. सचिन जे काही देऊन गेला होता ते सांभाळून वापर हो. त्याचे इन्शुरन्सचे येतील ते तुलाच देऊ आम्ही. पण त्याला खूप महिने लागतील. तोपर्यंत तुझ्या जवळ जे आहेत तेच तुला तुझ्या खर्चासाठी पुरवायचे आहेत." सासू म्हणाली. सासू असं काही म्हणेल याची कल्पना वासंतीला नव्हती; तिच्या डोळ्यात एकदम पाणी उभं राहिलं. पटकन वळून ती तिच्या खोलीत गेली.

जेवायची वेळ झाली तशी तिची आई तिला बोलवायला आली. "वासंती, चल बेटा जेवायला." अगदी मऊ आवाजात आई म्हणाली.

"आई, मी थोड्या वेळापूर्वी मार्केटला जायला निघाले होते." वासंती म्हणाली.

"अग? असं काय हवं होतं?" आईने तिला आश्चर्याने विचारलं.

"तसं महत्वाचं काही नव्हतं आई... पण मला मोकळा श्वास घ्यायचा होता. हे असं सतत दुःखात राहाणं मला जमत नाहीये आई." वासंती म्हणाली.

"अग, मग गच्चीत जा. मागच्या दारातल्या झाडांना पाणी घालायला जा. तिथे आहे की मोकळी हवा... घे हवा तितका श्वास." आई अगदी सहज आवाजात म्हणाली.

आईचं बोलणं ऐकून वासंतीला अजूनच वाईट वाटलं. "तुला खरंच कळत नाहीय का ग आई? का उगाच न कळल्याचं नाटक करते आहेस?" वासंती काहीसं वैतागून म्हणाली.

आईला खरंच कळलं नव्हतं की ती असं काय बोलली की वासंतीला अजून वाईट वाटलं. आई वासंतीच्या शेजारी बसली आणि म्हणाली; "वासंती, मी एका लहान गावात राहिलेली अडाणी बाई आहे. त्यात तुझ्या माझ्या वयात बरंच अंतर आहे; हे तू समजून घ्यावसं असं मला वाटतं ग. तुझ्या वडिलांना तू काय म्हणते आहेस ते कळायचं ग. मला कधीच नाही कळलं. ते होते तोवर तेच तुझ्या बाबतीतले सगळे निर्णय घेत होते. ते गेले अचानक.... आणि मी तुझ्या भावावर अवलंबले. मी म्हणजे कायम आधार शोधणारी वेल आहे वासंती. मला माझे असे विचारच नाहीत. त्यामुळे तू घरी आली होतीस; त्यावेळी देखील तू जे काही बोललीस ते पटलं असलं तरी त्याप्रमाणे मी वागूच शकणार नाही.... काल तू जे बोलत होतीस ते पटत होतं; पण खरं सांगू तर मला जनमानसाची लाज आणि भीड जास्त आहे ग. आत्ता देखील तू नक्की काय म्हणायचा प्रयत्न करते आहेस; ते मला कळत नाहीय. मला नीट सांगशील का?"

वासंतीला आईची एकदम कीव आली. आपण आईचा एक स्त्री म्हणून कधीच विचार केलेला नाही; हे एकदम जाणवलं वासंतीला. तिच्या डोळ्यात पाणी उभं राहिलं. तिने आईचा हात हातात घेतला आणि म्हणाली; "आई, मी देखील तुला समजून घेण्यात कमी पडले आहे. तू आहेस आणि असशील.... इतकं तुझं असणं मी गृहीत धरत गेले. तुला स्वतःचं अस्तित्व 'स्वत्व' आहे याची जाणीवच नाही झाली मला. चुकलंच माझं. पण आता माझ्याकडून तरी अशी चूक नाही करणार मी. अर्थात हे म्हणताना मी नक्की काय करणार आहे; ते माझं मला देखील माहीत नाही.... तरीही..."

आईने देखील वासंतीचा हात प्रेमाने हातात घेतला आणि म्हणाली; "बेटा, आई असतेच कायम असण्यासाठी... त्यामुळे तिच्या असण्याचा वेगळा विचार तुम्ही मुलांनी करावा अशी तिची अपेक्षाच नसते... फक्त तुम्ही प्रेम करावं इतकंच तिचं म्हणणं असतं. बरं, ते जाऊ दे. तुला का घुसमटतं आहे? डॉक्टरला बोलवायला हवं का?"

वासंती आईच्या शेवटच्या प्रश्नाने हसली आणि म्हणाली; "अग मोकळा श्वास म्हणजे... हे बघ; श्वास तर मी इथे या खोलीत देखील घेतेच आहे की. गच्चीत किंवा मागल्या दारी गेले तर अजून थोडं मोकळं वाटेल हे खरं.... पण मला तसा मोकळा श्वास म्हणायचं नव्हतं. आई... अग.... मला या सततच्या दुःखी वातावरणातून बाहेर पडायचं आहे. इथे राहून मला माझ्या पुढच्या आयुष्याचा विचार करता येत नाहीय ग. थोडी लांब गेले घरापासून तर कदाचित मी काहीतरी विचार करू शकेन; असं वाटलं म्हणून मी मार्केटच्या नावाखाली बाहेर पडणार होते. असं म्हणतात.... out of site is out of mind."

तिचं बोलणं ऐकून आईचा पवित्र परत बदलला. तिच्या मनातली घाबरट आणि सतत दुसऱ्यावर अवलंबलेली स्त्री पुढे आली आणि म्हणाली; "हे इंग्रजीत तू काय म्हणते आहेस ते मला माहित नाही वासंती. पण एक सांगून ठेवते; तुझ्या आयुष्याचा विचार करायला मोठे आहेत वासंती. उगाच काहीतरी बोलू नकोस आणि तेवढ्यासाठी बाहेर जाऊ नकोस."

"पण आई...." वासंतीने बोलायचा प्रयत्न केला. पण तिला गप्प करत तिची आई म्हणाली; "हे मनातले नको ते विचार लांब कर वासंती आणि हात पाय धुवून घरकामात मदत करायला ये. हे इथे नुसतं बसून तुझं डोकं नको तिथे चालायला लागलं आहे. तसंही आता घरकाम काही तुझ्या नशीबातून सुटणार नाही आहे. त्यामुळे गप गुमान सवय करून घे." इतकं बोलून तिची आई खोलीतून बाहेर पडली.

आई गेली आणि वासंती मान खाली घालुन मुसमुसायला लागली. इतक्यात हळूच दरवाजा उघडून नंदन आत आला. "वहिनी..." त्याने अगदी मऊ आवाजात वासंतीला हाक मारली. पण आपल्याच विचारात हरवलेल्या वासंतीला त्याची हाक ऐकू नाही आली. तिच्या जवळ जात नंदनने प्रेमळपणे तिला परत हाक मारली; "वासंती...." त्याच्या हाकेने दचकून वासंतीने वर बघितलं.

"अरे नंदन? तू कधी आलास आत? मला कळलंच नाही." वासंती म्हणाली.

"तू रडत होतीस तेव्हा...." नंदन म्हणाला आणि स्वतःचे डोळे पुसत हलकेच हसत वसांती म्हणाली; "हो का? बरं! मग बघ मी डोळे पुसले. बोल काय म्हणत होतास?"

"वासंती.... मला तुला काहीतरी विचारायचं होतं." नंदन म्हणाला.

"अरे, काल पण तू काहीतरी बोलणार होतास न? मग बोल की. तू हे असं परवानगी घेऊन का बोलतो आहेस माझ्याशी?" वासंती अगदी सहज आवाजात बोलत होती. तिला नंदनच्या मनात काय चालू आहे त्याचा मुळीच अंदाज नव्हता.

नंदनने एकदा तिच्या डोळ्यात खोल बघितलं आणि म्हणाला; "वासंती तू तुझ्या पुढच्या आयुष्याचा काही विचार केला आहेस का? तू अजून फक्त वीस वर्षांची आहेस. माझ्याहून देखील लहान. दादाहून तर बरीच लहान होतीस. मुळात तू दादाला हो कसं म्हणालीस हेच मला कोडं होतं. पण तुला बघितल्या पासून मी.... आणि दादासुद्धा एकदम आनंदी होता... म्हणून मी काहीच बोललो नव्हतो तेव्हा. पण आता.... वासांती आता अचानक सगळं बदलून गेलं आहे. तुझं लहान वय हे तसं बघितलं तर तुझ्यासाठी चांगलं आहे; पण तसं बघितलं तेच तुझ्या आयुष्यातला मोठा अडसर होणार आहे."

"नंदन तुला नक्की काय सांगायचं आहे मला?" नकळून वासंती म्हणाली.

"वसांती... सांगायचं नाहीय... विचारायचं आहे...." नंदन तिच्या समोर तिच्या पलंगावर बसत म्हणाला. त्याचवेळी वासंतीची आई वासंतीला बोलवायला परत आली आणि खोलीत वसांती सोबत नंदनला बघून एकदम गडबडली. पण तिची नंदनला काही बोलण्याची हिम्मत झाली नाही. त्यामुळे अचानक वसंतीवर भडकत ती वासंतीला ओरडली... "मी म्हंटलं अजून का येत नाहीस तू कामात मदत करायला... तुझी ही थेरं चालु आहेत म्हणून बसली आहेस का इथे? वासंती... एक सांगून ठेवते... माझ्यासमोर हे असलं वागणं चालणार नाही. कळलं? उठ आत्ताच्या आत्ता आणि चल माझ्यासोबत."

वासंतीला काहीच कळलं नाही की आई अचानक इतकी का चिडली. मात्र नंदनच्या ते लक्षात आलं. तरीही तो तिथेच बसून राहिला. त्याच्या नजरेत एक वेगळाच आत्मविश्वास होता. वासंतीच्या आईला त्याची नजर आवडली नाही. पण ती काहीच म्हणाली नाही. वासंतीला पुढे घेऊन ती खोलीतून निघून गेली.

वसांती आणि तिची आई खोलीतून जाताच नंदन वासंतीच्या कपाटाजवळ गेला. कपाटाला लॉक नव्हतं. त्याने ते उघडलं... एकदा वळून खोलीच्या दाराकडे बघितलं आणि समोर दिसणाऱ्या वासंतीच्या कपड्यांना हात घातला. नंदन खोलीतून बाहेर पडला आणि थेट त्याच्या खोलीत गेला. वासंतीची आई मागे लपून लक्ष ठेऊन होती. नंदनने काहीतरी नेलं आहे हे तिच्या लक्षात आलं; पण काही एक न बोलता ती कामाला लागली. मात्र त्यानंतर तिने वासंतीला एक मिनिटं देखील एकटं सोडलं नाही.

रात्री वासांती आणि तिची आई खोलीत आल्या. आज वासंतीला खूपच दमायला झालं होतं. कारण नंदन पासून लांब ठेवण्याच्या नादात तिच्या आईने तिच्याकडून खूप जास्त काम करून घेतलं होतं. काही कारण नसताना सगळ्या घराचे पडदे बदलणं; चादरी बदलणं.... असली कामं आज वासंतीने केली होती. त्यामुळे खोलीत येताच ती आडवी झाली. तिच्या शेजारी आडवं पडत तिची आई म्हणाली; "वासंती हा नंदन कसा मुलगा आहे ग?"

"हा काय प्रश्न आहे आई अचानक?" वासंतीने विचारलं.

"खरं सांगू का? सचिनजी गेल्याचं कळलं आणि आम्ही आलो.... तेव्हापासून मी बघते आहे की नंदन सतत तुझ्याकडे बघतो आहे. खरं सांग वासंती; तुमच्यात काही चालू आहे का? मी ऐकलं तो सकाळी काय बोलला. हे खरं आहे की सचिनजी आणि तुझ्यामध्ये वयाचं बरंच अंतर होतं; पण अग मी आणि तुझ्या बाबांनी त्यावेळी हाच विचार केला होता की मुलगा उत्तम शिकलेला आहे आणि मुंबईत नोकरी करतो. त्यामुळे तुला सुखी ठेवेल. पण तू त्याच्या सोबत न जाता इथेच राहिलीस. हा नंदन देखील शिक्षण संपलं आहे तरी अजून नोकरी न करता इथेच आहे. त्यामुळे तुझं आणि त्याचं उठणं बसणं होतच असेल न? तो ज्या पद्धतीने तुझ्याकडे बघतो; तुझी बाजू घेऊन बोलतो आणि मुख्य म्हणजे तुझ्याशी बोलताना त्याच्या डोळ्यात काहीतरी वेगळाच भाव असतो.... म्हणून विचारलं तुझं आणि त्याचं...." वासंतीची आई बोलता बोलता थांबली आणि तिने वासंतीकडे बघितलं. दमलेली वासंती कधीच झोपली होती. आईच्या मनात एकदा आलं की तिला उठवावं आणि विषय पूर्ण बोलून घ्यावा. पण मग तिला वासंतीची दया आली आणि तिला थोपटत ती देखील झोपली.

वासंतीची आई आता डोळ्यात तेल घालून नंदन आणि वासंतीवर लक्ष ठेऊन होती. त्या रात्रीनंतर तिने वासंतीकडे मनातला विषय काढला नव्हता. पण वासंतीला एकट देखील सोडलं नव्हतं. एक एक दिवस पुढे जात होता. वासंतीला आईचं सतत काम करायला लावणं आवडत नव्हतं. पण ती काहीच बोलत नव्हती. कारण तिला माहीत होतं की; ती जर आईला काही बोलली असती तर तिच्या सासूबाईंनी आईचा अपमान केला असता. जाणाऱ्या प्रत्येक दिवसा बरोबर वासंतीला सगळं नकोसं होत होतं.

शेवटी एका दुपारी तिने तिच्या मैत्रिणीला अनघाला फोन केला. वासंतीच्या फोनची अपेक्षा नसल्याने अनघाने लगेच फोन उचलला. "अरे वासंती? तू कसा काय फोन केलास? कशी आहेस ग? मी पहिल्या दिवशी येऊन गेले ग पण तू दिसलीच नाहीस. मी फक्त नंदनला ओळखते. पण इतक्या सगळ्या लोकांत त्याच्याशी बोलले असते तर वाईट दिसलं असतं. म्हणून मग पार्थिवाला नमस्कार केला आणि लगेच निघाले. तुला फोन करायचं इतक्या वेळा मनात आलं ग; पण काय बोलू आणि तुझं सांत्वन कसं करू कळलं नाही म्हणून हातात घेतलेला फोन खाली ठेवला." श्वास देखील न घेता अनघा बोलली.

तिचं बोलणं ऐकून वासंतीला हसायलाच आलं. "अग... हो! हो! किती ते explanation? नाही केलास फोन तर नाही.... मला काही वाईट नाही ह वाटलं त्याचं. पण खरं सांगू का अनघा.... मी काही दुःखात बिख्खात नाहीय ह. अग तुला तर माहीतच आहे माझं आणि सचिनचं तसं फार जुळलं नव्हतं. त्यामुळे तो गेल्याचं वाईट वाटलं असलं तरी अगदी मोडून पडले..... आता माझं पुढे काय होणार.... असं काही होत नाहीय मला." वासंती मोकळेपणी म्हणाली.

तिचं बोलणं ऐकून अनघाला धक्काच बसला. "काय बोलते आहेस वासांती? तुला ना माहेरचा आधार... आता तर मोठा दीर आणि सासू. म्हणजे त्यांच्या तालावर आयुष्यभर राहावं लागणार आहे आणि तुझं पुढे काय होणार याची तुला चिंता वाटत नाही?" अनघाने वासंतीला विचारलं.

"नाही अनघा.... म्हणजे काय करावं पुढे याचा मी सतत.... अगदी सतत.... विचार करते आहे. मला माहित आहे मी माहेरी जाऊच शकत नाही. पण तरीही आत्ता मला फक्त एकाच गोष्टीचं प्रेशर आहे ग. सगळ्यांना मी न सतत दुःखी असायला हवी आहे. मी सतत सचिनचं नाव घेऊन रडावं असं वाटतं सगळ्यांना.... अगदी माझ्या आईलासुद्धा. पण मला नाही ग रडायला येत. सगळंच कसं अवघड होऊन बसलं आहे. सतत विचार करून मी वेडी होईन असं वाटतंय मला. बरं ते जाऊ दे.... ए ऐक न! मी न तुला अगदी वेगळ्याच कारणासाठी फोन केला आहे. अनघा.... तू मला भेटायला येऊ शकशील का आज?"

वासंतीचा प्रश्न ऐकून अनघा एकदम गोंधळली. "का ग? आत्ता तर म्हणालीस दुःखात नाही आहेस.... मग?" अनघाने विचारलं.

"अग, ही आई मला न सतत कामाला जुंपते आहे. तू आलीस की मला थोडा आराम मिळेल आणि दुसरं पण एक कारण आहे." असं म्हणून वासंतीने आजूबाजूला कोणी ऐकत तर नाहीय न याची खात्री केली. "दुसरं काय कारण ग?" अनघाने तेवढ्यात विचारलं. "अनघा.... अग गेले दोन दिवस मला न thums up प्यावसं वाटतंय. पण सध्याच्या माझ्या परिस्थितीत मला कोणी बाहेर जाऊ देणार नाही. आणि तरीही गेलेच; तर thums up विकत घेताना कोणा ओळखीच्या व्यक्तीने बघितलं तर माझं कल्याण होईल. तू येताना हळूच तुझ्या पर्स मधून घेऊन आलीस तर मला पिता तरी येईल." वासांती म्हणाली.

अनघाला एकदम हसायलाच आलं. "बरं बरं. येते आज चार वाजेपर्यंत." ती वासंतीला म्हणाली आणि तशी आली देखील. काही वेळ बाहेर बसून वासंतीच्या सासुशी बोलून झाल्यावर वासंती तिला घेऊन खोलीत गेली. आत गेल्याबरोबर अनघाने तिच्या पर्स मधून आणलेलं thums up काढलं आणि वासंतीला दिलं. घाईघाईने बाटली उघडून वासंतीने ती तोंडाला लावली आणि त्याच्यातल्या सोडल्यामुळे वासंतीला ठस्का लागला. तिला लागलेला ठस्का बघून अनघा हसायला लागली. वासंती देखील हसायला लागली... इतक्यात नंदन आत आला. त्याला बघून दोघी एकदम बावचळल्या. त्यावर हलकेच हसत त्याने पाठी लपवलेले दोन ग्लास वासंतीच्या पुढे केले आणि डोळ्यांनीच 'पी बिनधास्त' अशी खुण करून तो परत बाहेर निघून गेला. तो जाताच परत एकमेकींकडे बघत अनघा आणि वासंती हसायला लागल्या. त्यांच्या हसण्याच्या आवाजाने वासंतीची आई आत आली. आईच असल्याने वासंती निवांत होती; पण वासंतीच्या हातात thums up बघून आई प्रचंड चिडली.

"लाज वाटते का ग तुला? अजून तुझ्या नवऱ्याचं तेरावं नाही झालं आणि तुला मात्र बाहेरख्यालीपणा सुचतो आहे! अग चांडाळणी जन्मायच्या अगोदरच का नाही मेलीस? इतक्या उतार वयात जन्मलीस की तुझ्या काळजीने तुझे वडील लवकर गेले. मी एकटी पडले. पण मनाला दिलासा देत होते की किमान तुझं आयुष्य मार्गी लागलं; तर नवऱ्याला खाऊन बसलीस. त्यावर ढेकर येत नाही की काय? म्हणून हे असलं काहीतरी प्यायची इच्छा होते आहे?" आई तोंडाला येईल ते बोलत होती. अनघा त्या अचानक झालेल्या भडीमराने एकदम घाबरली आणि पटकन आपली पर्स उचलून निघून गेली. वासंतीला आई असं काही बोलेल हे मनात देखील नव्हतं. त्यामुळे ती एकदम सुन्न झाली. आई बोलायची थांबली आणि वासंती शांतपणे उठून खोलीतून निघून गेली. वासंती गेली त्याबरोबर पलंगावर बसून आई हमसून हमसून रडायला लागली.

वासंती खोलीबाहेर पडली ते थेट गच्चीत गेली. ती गच्चीच्या कठड्यावर बसली होती आणि तिची नजर कुठेतरी हरवून गेली होती. किती वेळ गेला त्याचं तिला भानच नव्हतं. पण आता उन्ह उतरायला लागली होती. कलती संध्याकाळ होती. अचानक वासंतीला मागून हाक ऐकू आली.

"वासंती!" नंदन वासंतीच्या मागे उभा होता.

वासंतीने वळून बघितलं. "काय करते आहेस इथे? बराच वेळ मी तुझ्या मागे उभा आहे. पण तुझं लक्षच नाहीय." नंदन म्हणाला.

"नंदन.... लग्नानंतर सगळ्याच आयुष्य संपतं का रे? मी फक्त माझ्यासाठी नाही म्हणत रे. पण एकदा लग्न झालं की मुलगा आणि मुलगी वेगळे नसतातच का? त्यांच्या आयुष्यात जे होतं ते एकत्र जोडीनेच होतं का? तसं असेल तर का असावं तसं? सचिन इतकी चांगली नोकरी करत होता. छान जगत होता.... पण मग त्याचं लग्न झालं आणि मी त्याची एक जवाबदारी म्हणून आले त्याच्या आयुष्यात. तुला माहीत आहे.... आम्ही फारच कमी वेळ घालवला एकत्र. मला त्याच्या डोळ्यात खूप जिव्हाळा - काळजी दिसायची माझ्याबद्दल. आम्ही एकत्र देखील आलो. पण तरीही प्रेम नव्हतं फुललं आमच्यात. बोलताना नेहेमी तो माझ्यासाठी काय करणार ते सांगायचा. मग स्वतःचे प्लॅन्स सांगायचा आणि मला म्हणायचा की माझ्यात खूप पोटेन्शियल आहे; टॅलेंट आहे. मी देखील काहीतरी केलं पाहिजे. त्याच्या बोलण्यात कधीही आम्ही दोघे काय करणार हे नव्हतंच. त्यामुळे तुम्हाला सगळ्यांना माझ्याकडून जे अपेक्षित आहे न तशी रेअकॅशन मी देऊ शकणारच नाही रे. धाय मोकलून रडण्या इतकं प्रेम नव्हतं आमचं आणि दुःख न करण्या इतकी detachment नव्हती. सचिनची आणि माझी मैत्री होती रे... जी लग्न बंधनात अडकली होती. त्यामुळे आता तो नाही तर माझ्यासाठी किंवा तो स्वतःसाठी काय करणार हे आपोआप संपतं न! आता मी काहीतरी केलं पाहिजे इतकंच उरलं आहे रे माझ्यासाठी. मनात सतत तेच विचार असतात. पण हे मी आईला सांगूच शकत नाहीय. कारण तिला ते समजणारचं नाही. तिलाच का.... कोणालाही कळणार नाही. नंदन हे किती दुर्दैव आहे न... की मला काहीतरी करायचं आहे. तशी लायकी आणि हुशारी आहे... फक्त मार्ग माहीत नसल्याने मी अडकून पडणार आहे या टिपिकल आयुष्यात. कोणाच्यातरी उपकारांवर जगत आयुष्य काढणं सोपं नसतं रे. त्या नुसत्या विचाराने देखील मी अस्वस्थ होते आहे." उसासून काहीसं नंदनशी आणि काहीसं स्वतःशी बोलली वासंती. इतक्यात तिला तिच्या आईने मारलेली हाक ऐकू आली.

वासंतीने नंदनकडे बघितलं. नंदन वासंतीकडे स्थिर डोळ्यांनी बघत होता. काहीतरी होतं त्याच्या डोळ्यात. वासंतीला कळलं नाही. नंदन पुढे झाला आणि त्याने वासंतीचे दोन्ही खांदे धरले आणि म्हणाला; "वासंती, काळजी करू नकोस. मी आहे तुझ्या सोबत. उद्या तेरावं आहे दादाचं. सकाळी सगळे येतील. खूप गडबड असेल. ते सगळं उरकलं की मला तुला...." नंदन काहीतरी सांगणार होता; इतक्यात वासंतीची आई गच्चीत आली. नंदनने वासंतीचे खांदे धरले होते ते बघून ती एकदम स्थब्द झाली. नंदनची नजर अगदी शांत होती. त्याने एकदा वासंतीच्या आईकडे बघितलं आई मग वासंतीला म्हणाला; "वासंती मला तुझ्याशी खूप महत्वाचं काहीतरी बोलायचं आहे. तुझ्याबद्दल.... माझ्या मनात जे आहे ते. पण आत्ता नाही. उद्या सगळे विधी उरकले की मगच. त्यामुळे आत्ता जा तू."

वासंतीने एकदा नंदनकडे गोंधळून बघितलं. आई आली तरी नंदनने बोलायला हरकत नव्हती असं तिचं मत होतं. पण ती काहीही बोलली नाही आणि आई सोबत खाली उतरायला लागली.

"वासंती काय म्हणत होता तो?" आईने वासंतीला जिन्यातच प्रश्न केला.

"त्याला काहीतरी विचारायचं आहे मला. किंवा सांगायचं आहे... माहीत नाही मला नक्की. पण उद्या सगळं उरकलं की बोलेन म्हणाला आहे तो." वासंतीने शांतपणे उत्तर दिलं.

वासंतीच्या आईला ते काहीच पटलं नाही. पण काय बोलावं न कळून ती गप बसली.

दुसऱ्या दिवशी पाहाटेपासूनच सचिनचे काका, आत्या अशी मंडळी यायला लागली. वासंतीचा भाऊ देखील आला होता. त्याने आईला एकट्यात गाठलं आणि म्हणाला; "हे बघ आई, हे सगळं आटोपलं की तू माझ्या सोबत निघायचं आहे. उगाच वासंतीचं लटांबर गळ्यात घेऊ नकोस. आपल्याला आपलाच खर्च उरकत नाहीय. त्यात तिची भर नको." त्याचं बोलणं ऐकून वासंतीच्या आईला खूप राग आला. पण ती काहीच बोलली नाही. मुलाशी वाकड्यात जाऊन काही उपयोग नाही; हे तिला माहीत होतं. शेवटी त्याच्या सोबतच तर राहायचं होतं तिला मरेपर्यंत."

"वासंती नाही येणार आपल्या सोबत. चिंता करू नकोस. तीच सासर तिला पोसू शकतं." आई चिडक्या आवाजात म्हणाली. त्यावर "मग ठीक..." असं म्हणून वासंतीचा भाऊ निघून गेला.

त्यानंतर भटजी आले आणि त्यांनी हवनाला सुरवात केली. सगळे सोपस्कार करण्यासाठी नंदनच बसला होता. नंदनचे डोळे सतत वासंतीचा मागोवा घेत होते आणि वासंतीच्या आईचे डोळे नंदनच्या डोळ्याचा...

हवन आटपलं आणि भटजींनी सगळ्यांना एक एक करून नमस्कारासाठी बोलावलं. वासंती नमस्कार करण्यासाठी वाकली आणि कोणालाही लक्षात येण्याच्या अगोदर नंदनने तिच्या हातात एक चिठ्ठी सारली. वासंती एकदम चमकली आणि तिने नजर उचलून नंदनकडे बघितलं. त्याच्या डोळ्यात आर्जव होतं. त्याच्या डोळ्यात डोळे घालून काही क्षण बघून वासंतीने नमस्कार केला आणि बाजूला झाली. हे सगळं अगदी काही क्षणात घडलं होतं. त्यामुळे कोणाच्याही लक्षात आलं नाही. पण...... वासंतीच्या आईच्या नजरेतून काहीच सुटलं नव्हतं. मात्र त्याक्षणी ती काहीच बोलली नाही.

हवन आटोपलं आणि भटजी म्हणाले; "इथलं सगळं आटोपलं आहे. आता सगळी पुरुष मंडळी एकदा स्मशानात जाऊन आली म्हणजे सचिनचा आत्मा मोकळा होईल."

भटजींनी सांगितल्या प्रमाणे सगळे पुरुष निघाले. सचिनच्या आईला रडू आवरत नव्हतं. आत्या आणि काकू तिची समजून घालत होत्या. पण तरणा ताठा मुलगा गेल्याचं दुःख त्या माउलीला सहन होत नव्हतं. वासंतीला मात्र अजिबात रडू येत नव्हतं. उगाच कोणी काही बोलू नये म्हणून वासंती उठली आणि हळूच तिच्या खोलीत गेली. वासंतीच्या आईने ते बघितलं आणि ती देखील पटकन उठून वासंतीच्या मागे गेली.

वासंती पलंगावर बसली होती. नंदनने दिलेली चिठ्ठी ती उघडणार इतक्यात तिची आई आत आली. आई आली म्हणून वासंतीने चिठ्ठी असलेला हात मागे नेला. पण आई पुढे आली आणि तिने तिच्या हातातून ती चिठ्ठी काढून घेतली आणि उघडली.

वासांतीला आईचं वागणं आवडलं नव्हतं. पण ती काहीच न बोलता आईकडे बघत बसली. चिठ्ठी वाचली आणि वासंतीच्या आईने नजर उचलून वासंतीकडे बघितलं. वासंतीला तिच्या आईच्या चेहेऱ्यावरून काहीच अंदाज येईना. आईने शांतपणे हातातली चिठ्ठी वासंतीला दिली. वासंतीने चिठ्ठी हातात घेतली आणि वाचायला सुरुवात केली...

"वासंती;

आयुष्य एकमेकांसोबत प्रेमाने घालवणं सुंदर असतं. पण ती भावना दोघांच्याही मनात असावी लागते. दादा मला हेचअनेकदा म्हणाला होता. त्याला तुझ्यात मैत्रीण दिसायची. प्रेयसी नाही. पण तरीही मला वाटतं, तो असता तर तुमचा दोघांचा संसार खूप सुंदर झाला असता; कारण दोस्तीचं नातं हे इतर कोणत्याही नात्यापेक्षा शुद्ध आणि प्रामाणिक असतं; असं मी मानतो. पण आता तो नाही.... आणि म्हणूनच तू त्याच्या सोबत बांधल्या गेलेल्या नात्यातून मोकळी आहेस. मात्र हे इथल्या कोणालाही कळत नाहीय असं मला वाटतं. वासंती दादा गेला आणि तू एक निर्जीव वस्तू असल्याप्रमाणे सगळ्यांनी तू काय करावं; कसं जगावं हे ठरवायला सुरवात केली.

वासंती दादा आणि तुझ्यात जी मैत्री निर्माण झाली होती त्यापेक्षा देखील जास्त गहिरी दोस्ती आपल्यात आहे असं मला वाटतं. वासंती तू खरंच कोणालाही आवडविस अशीच आहेस. हुशार, सोजवळ आणि स्ट्रीट स्मार्ट!

वासंती तू लग्न होऊन आलीस आणि तुझ्या वाचनाच्या आवडीमधून मला लक्षात आलं की तुझं केवळ मराठीच नाही तर हिंदी आणि इंग्रजी भाषेवर देखील उत्तम प्रभुत्व आहे. म्हणूनच मी तुला माझ्या सोबत जर्मन शिकायला लावलं होतं. तुला माझ्यापेक्षा जास्त मार्क्स मिळाले होते तेव्हा मला इतर कोणाहीपेक्षा जास्त आनंद झाला होता.आज तू जर्मन भाषा सहज वाचू लिहू शकते आहेस; याचा मला खूप अभिमान आहे.

वासंती... आता मी तुला जे सांगतो आहे ते मात्र खूप खूप महत्वाचं आहे. वासंती, खरंच तू माझ्यासाठी खूप खास आहेस. म्हणूनच तुझ्याबद्दल सगळे बोलायला लागले आणि तेव्हाच मी ठरवलं की तू आता तरी कोणाच्यातरी मर्जीने जगायचं नाही.

वासंती, तुझा ई-मेल चेक कर. तुला एका जर्मन संस्थेकडून ट्रान्सलेटर म्हणून जॉब मिळाला आहे. मी दादाच्या मित्रांशी बोललो आहे. ते तुला पहिले दोन महिने त्यांच्या सोबत राहायला द्यायला तयार आहेत. फक्त तुला त्याच्यासाठी जेवण बनवावं लागणार आहे. I think that's a fair deal.

वासंती.... माझ्या लाडक्या मैत्रिणी (तू आणि मी असताना मी तुला अशीच हाक मारायचो आणि कायम अशीच हाक मारणार आहे...) now sky is the limit for you. पंख पसर आणि घे भरारी! आम्ही परत येईपर्यंत जर तू निघाली असलीस तर पुढच्या प्रवासात देखील मी तुझ्या सोबत असेन. पण निर्णय तुला घ्यायचा आहे. आश्रित म्हणून जगायचं की स्वतःच्या turms वर स्वतःला सिद्ध करायचं.

तुझा मित्र,
नंदन

वासंतीने चिठ्ठी वाचली आणि तिचे डोळे भरून आले. चिठ्ठी वाचतानाच तिच्या मनात आलं होतं की आई आता मोठा तमाशा करणार आहे. तिने मान भरल्या डोळ्यांनी मान वर केली आणि....

वासंतीची आई कपाटातून वासंतीचे कपडे काढून एका बॅगेत भरत होती. वासंतीला आता पुढे काय वाढून ठेवलं आहे ते कळेना. तिने आईला हाक मारली....

"आई...."

"वासंती उठ. तुला लगेच निघायला हवं. इतक्यात येतीलच सगळी मंडळी. हे बघ मागल्या गॅलरीतून खाली उतर. मी करते मदत; आणि हे घे. हे थोडे पैसे आहेत माझ्याकडे. ते ठेव. लागतील तुला सोबत." आई भराभर तिचं समान भरत म्हणाली.

वासंतीला आईच्या बोलण्याने आणि वागण्याने धक्का बसला. आई जवळ जात तिने आईला घट्ट मिठी मारली. तिला जवळ घेत तिची आई म्हणाली; "बाळा, काल जे काही बोलले ते तुझ्या काळजीने होतंच ग; पण त्याहूनही जास्त माझी अगतिकता बोलत होती. बेटा; मला तुझी हुशारी कळत नव्हती असं नाही; पण सामाजिक बांधिलकी मला काही करू देत नव्हती. पण कोण कुठला तो नंदन. माझ्याहूनही जास्त तो तुझा विचार करत होता ग. तो म्हणतो आहे तेच बरोबर आहे बेटा. आश्रिता सारखं आयुष्यभर जगणं अशक्य आहे. तुझ्या पंखात बळ आहे. जा... जग ग बाळा सुखाने."

आई अजूनही काही बोलली असती. पण खालून आत्याचा हाक मारल्याचा आवाज आला आणि डोळे पुसत वासंतीला काही एक बोलण्याचा वेळ न देता आईने तिच्या हातात तिची बॅग दिली. पैसे तिच्या पर्समध्ये ठेवत तिला गॅलरीत नेलं आणि चादरींच्या मदतीने तिला खाली उतरवलं. वासंतीने खाली उतरून मागे वळून बघितलं. आई तिचे डोळे पुसत होती. आईला बाय म्हणून वासंतीने मागच्या भिंतीवरून उडी मारली आणि ती बस स्टॉपच्या दिशेने निघाली.

समाप्त